वेब-डेस्क :- गोवा के एल्डोना गांव के रहने वाले 66 वर्षीय कृष्णा केरकर ने अपने जीवन के पिछले 45 साल खेती और गाय पालन को समर्पित कर दिए हैं। यह सिर्फ एक पेशा नहीं, बल्कि उनके परिवार की सौ साल पुरानी परंपरा और जीवनशैली का हिस्सा है। एक समय उनके पास कई बैल थे, पर अब बढ़ती महंगाई, घटती मांग और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों के बीच उन्होंने अपनी विरासत को सहेजकर रखा है।
एसएससी के बाद उन्होंने आईटीआई से ट्रेनिंग ली, और सरकारी नौकरी की कोशिश भी की, लेकिन अंततः किस्मत उन्हें उसी मिट्टी की ओर खींच लाई, जिसमें उन्होंने बचपन से पसीना बहाया था। आज वह सुबह 6 बजे से लेकर शाम तक अपने पशुओं की सेवा में लगे रहते हैं। हर दिन की उनकी दिनचर्या में गायों को चराना, दूध निकालना, और गोबर इकट्ठा करना शामिल है। यहां तक कि किसी पारिवारिक समारोह के समय भी, वे अपनी दिनचर्या नहीं छोड़ते।
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कृष्णा बताते हैं कि एक महीने में लगभग 20,000 रुपये चारे पर खर्च हो जाते हैं। मशीन से काटे गए चारे को बारिश से बचाना भी एक चुनौती है। स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं, विशेष रूप से पीठ दर्द, उन्हें तकलीफ़ देता है, लेकिन फिर भी उनका जुनून कम नहीं होता। उनकी बेटियाँ अब इस काम में उनका साथ देती हैं, लेकिन वे मानते हैं कि आज की पीढ़ी इस क्षेत्र में कम रुचि रखती है, क्योंकि इससे आर्थिक सुरक्षा नहीं मिलती।
गोबर, जिसे पहले ईंधन और खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, अब बस उनके खुद के खेतों में ही उपयोग होता है। कृष्णा बताते हैं कि पहले गोबर के उपलों की भारी मांग थी, लेकिन एलपीजी और आधुनिक जीवनशैली ने इस पारंपरिक संसाधन को हाशिये पर ला दिया है।
उनका मानना है कि खेती और पशुपालन केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी जोड़ते हैं। “ये गायें मेरे लिए सिर्फ जानवर नहीं, मेरे परिवार की तरह हैं,” वे कहते हैं।
आज जब दुनिया आधुनिकता की ओर दौड़ रही है, वही गोवा के कृष्णा केरकर जैसे किसान हमें हमारी जड़ों से जोड़ने का काम कर रहे हैं। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि परंपरा और प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर भी जीवन को संपूर्ण और संतोषजनक बनाया जा सकता है।
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