वेब-डेस्क :- दिल्ली की हजरत निज़ामुद्दीन दरगाह में हर साल बसंत पंचमी के दिन एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है, जो लोगों को हैरान कर देती है।
इस दिन दरगाह में हिंदू गीत और कव्वाली गाई जाती है, भक्त पीले वस्त्र पहनकर आते हैं और सरसों के फूल चढ़ाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि मुस्लिम दरगाह में हिंदू परंपराओं को निभाने की ये शुरुआत कैसे हुई?
इस रहस्य की जड़ें इतिहास में छुपी हैं। हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर बसंत पंचमी मनाने की परंपरा सुल्तान-ए-तरिकत हजरत निज़ामुद्दीन औलिया और उनके प्रिय शिष्य अमीर खुसरो से जुड़ी हुई है। इस परंपरा की शुरुआत एक भावुक और मार्मिक घटना से हुई थी। हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर यह परंपरा उनके प्रिय शिष्य अमीर खुसरो की भावुक कोशिश का परिणाम है।
यह भी पढ़े …. दुनिया की सबसे खूंखार जनजाति, इंसानों की हत्या करना मानते हैं मर्दानगी – unique 24 news
कहानी उस समय की है, जब हजरत निज़ामुद्दीन औलिया अपनी भतीजी की मौत के बाद गहरे शोक में डूबे हुए थे। जब हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की भतीजी का निधन हुआ, तो वे अत्यधिक दुखी और उदास रहने लगे। उनकी इस उदासी को देखकर अमीर खुसरो ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद (गुरु) को खुश करने के लिए कुछ अनोखा करने का फैसला किया। और जो हमेशा अपने गुरु की खुशी के लिए तत्पर रहते थे, उन्होंने गुरु को प्रसन्न करने का एक अनोखा तरीका अपनाया।
अमीर खुसरो ने देखा कि हिंदू महिलाएं बसंत पंचमी के दिन पीले वस्त्र पहनकर, खेतों में सरसों के फूल लेकर, देवी सरस्वती की पूजा कर रही हैं और खुशी-खुशी गीत गा रही हैं। उन्होंने सोचा कि यदि वे भी पीले वस्त्र पहनकर अपने गुरु के समक्ष इसी तरह प्रकट होंगे, तो शायद उन्हें कुछ सुकून मिलेगा | खुसरो ने भी वैसा ही किया और दरगाह में “सकल बन फूल रही सरसों…” गाया। यह गीत सुनते ही हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के चेहरे पर मुस्कान लौट आई। उसी दिन से दरगाह में बसंत पंचमी को खुशी और उल्लास का प्रतीक मानकर इसे हर साल मनाने की परंपरा शुरू हो गई।
हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल
यह परंपरा आज भी हिंदू-मुस्लिम एकता और गंगा-जमुनी तहज़ीब का संदेश देती है। हर साल बसंत पंचमी पर दरगाह में सरसों के फूल चढ़ाए जाते हैं, पीले वस्त्र धारण किए जाते हैं और अमीर खुसरो की कव्वाली गाई जाती है।
देश दुनिया की ताजातरीन खबरों के लिए
हमारे यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें….