वेब-डेस्क :- शादियां स्वर्ग में तय होती हैं यह कहावत भारतीय समाज में गहराई से जमी हुई है, लेकिन जब बात अरेंज मैरिज की प्रक्रिया की आती है, तो यह कई महिलाओं और उनके परिवारों के लिए एक कठिन परीक्षा बन जाती है।इसी सामाजिक सच्चाई को दर्शाती है मराठी फिल्म ‘स्थल: ए मैच’, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई प्रतिष्ठित पुरस्कार जीते हैं और अब भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है।
गांव की एक लड़की की संघर्षभरी कहानी :- फिल्म की कहानी ग्रामीण महाराष्ट्र की एक महत्वाकांक्षी लड़की सविता के इर्द-गिर्द घूमती है, जो शिक्षा और करियर को प्राथमिकता देना चाहती है। लेकिन उसकी दुनिया तब हिल जाती है, जब उसका गरीब किसान पिता दौलतराव वंधारे उसकी शादी के लिए एक योग्य वर खोजने की कवायद में जुट जाता है।
सामाजिक कुरीतियों पर करारा प्रहार करते हुए – निर्देशक जयंत दिगंबर सोमलकर ने अपनी इस फिल्म में अरेंज मैरिज की रूढ़ियों, दहेज प्रथा और समाज में महिलाओं के प्रति मौजूद भेदभाव को बेबाकी से दर्शाया है। खास बात यह है कि फिल्म के सभी कलाकार गांव से चुने गए नए चेहरे हैं, जिससे कहानी को और अधिक वास्तविकता का स्पर्श मिलता है।
फिल्म का एक दृश्य समाज के कटु सत्य को उजागर करता है जहां सविता को एक लकड़ी के स्टूल पर बैठाकर लड़के वालों के सवालों की बौछार झेलनी पड़ती है। उसकी ऊंचाई, रंग और व्यवहार पर टिप्पणी की जाती है, जबकि भावी दूल्हे की कोई समीक्षा नहीं होती। “मैं शादी नहीं करना चाहती, पहले पढ़ाई पूरी कर सिविल सेवा परीक्षा देना चाहती हूं”—सविता का यह संघर्ष उन हजारों भारतीय लड़कियों की कहानी बयां करता है, जो अपनी पहचान शादी से अलग बनाना चाहती है
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दहेज की सामाजिक त्रासदी:- फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे दहेज प्रथा आज भी भारतीय समाज में जड़ें जमाए हुए है। सविता के पिता अपनी जमीन तक बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं, ताकि उसकी शादी का खर्च उठा सकें। निर्देशक सोमलकर ने बताया कि यह कहानी उनके व्यक्तिगत अनुभवों से प्रेरित है। उन्होंने अपने परिवार की महिलाओं को इस दौर से गुजरते देखा और पहली बार जब उन्होंने खुद एक लड़की को ‘देखने’ की रस्म में हिस्सा लिया, तो महसूस किया कि यह प्रक्रिया महिलाओं को वस्तु की तरह परखने से कम नहीं।
स्थल क्यों है खास?
1. रूढ़ियों को तोड़ती कहानी – फिल्म शादी और समाज की दकियानूसी सोच पर सवाल उठाती है।
2. दहेज प्रथा का पर्दाफाश – यह दिखाती है कि कानूनी रूप से प्रतिबंधित होने के बावजूद दहेज प्रथा कैसे जीवित है।
3. वास्तविक कलाकारों का बेहतरीन अभिनय – फिल्म में स्थानीय कलाकारों ने अपने संघर्ष को जी कर निभाया है।
निर्देशक का कहना है, “यह फिल्म सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक बदलाव की शुरुआत है।”
क्या ‘स्थल’ समाज की सोच बदल पाएगी?
भारत में 90% से अधिक शादियां अभी भी अरेंज होती हैं, और अधिकांश मामलों में महिलाओं की इच्छा से अधिक परिवार की प्रतिष्ठा और सामाजिक परंपराएं मायने रखती हैं। ‘स्थल’ इस मुद्दे को पर्दे पर लाकर एक नई बहस छेड़ने का प्रयास करती है।
सोमलकर कहते हैं, “एक फिल्म रातोंरात समाज नहीं बदल सकती, लेकिन यह लोगों को सोचने पर मजबूर कर सकती है। और शायद यही बदलाव की पहली सीढ़ी होगी।
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